Header Ads

महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति

महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति...


निरंतर सात दिन और सात रात्रि गौतम पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस दिन वैशाख पूर्णिमा थी। रात्रि में चंद्रमा अपनी शीतल चाँदनी से संसार को अमृत तुल्य शीतलता से जगमगा रहा था। इस रात्रि को गौतम को बोध (ज्ञान) की प्राप्ति हुई और वे 'गौतम बुद्ध' कहलाने लगे। जिस पीपल वृक्ष के नीचे गौतम को बोध की प्राप्ति हुई, उसे 'बोधि वृक्ष' कहा गया।

बोध गया (बिहार) के प्राचीन मंदिर के पीछे आज भी यह बोधि वृक्ष और वज्रासन विद्यमान हैं।

गौतम को जिस समय बोध की प्राप्ति हुई, उस समय उनकी आयु पैंतीस वर्ष थी। देवताओं ने इस समय उन पर पुष्प वर्षा कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की।

गौतम बुद्ध ने विकारों और तृष्णा को नष्ट करने का मार्ग ढूँढ लिया था। उन्हें मृत्यु से अमर्त्य की ओर आने का मार्ग मिल गया था और निर्वाण की प्राप्ति हो गई थी। संसार के रोग-शोक, हर्ष-विषाद अब गौतम बुद्ध के ऊपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते थे। उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हो गई थी और

उसी दिव्य ज्ञान की छटा बिखेरने के लिए वे भ्रमण को निकल पड़े। जो पाँच ब्रह्मचारी गौतम बुद्ध को भोग लिप्त मानकर त्याग आए थे, वे एक स्थान पर साधना कर रहे थे। भ्रमण करते हुए गौतम बुद्ध उधर से आ निकले। पाँचों ब्रह्मचारियों ने गौतम बुद्ध की दिव्य मुख-मुद्रा देखी तो चकित रह गए। वे समझ गए थे कि उन्हें बोध की प्राप्ति हो गई है। वे पाँचों गौतम बुद्ध के चरणों पर गिर पड़े। बुद्ध ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया और उन्हें उपदेश दिया।

"धर्म परायण जीवन जीने के लिए मर्यादा का पालन करो।
तृष्णा को त्याग दो और जाति-पांति के भेदभाव को समाप्त करो तथा सभी से मृदुल, मधुर व्यवहार करो। "

गौतम बुद्ध का यह उपदेश धर्म चक्र प्रवर्तन कहा गया। यह उपदेश अत्यंत सरल और स्वीकार्य था। इससे सामान्यतः सभी का भला होता था। कुछ ही समय में बुद्ध के सैकड़ों शिष्य बन गए। इसके बाद उन्होंने संपूर्ण देश में धर्म प्रचार आरंभ कर दिया। उन्होंने अपने साठ प्रमुख शिष्यों को धर्म प्रचार के लिए चारों दिशाओं में भेज दिया।

गौतम बुद्ध वर्ण-भेद, रूढ़िवाद और यज्ञ के लिए की जाने वाली हिंसा के विरुद्ध थे। वे कहा करते थे-"हिंसा मानवीय धर्म नहीं है। यदि बलि देने की इच्छा है तो प्राणी मात्र की बलि देने की अपेक्षा अपने विकारों और वासनाओं की बलि दो।" हिंसा करके (बलि देकर) शुभत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती।

गौतम बुद्ध ने जाति-भेद और वर्ण व्यवस्था का भी विरोध किया। इस बारे में वे कहा करते थे, “जन्म से कोई भी मनुष्य न तो ब्राह्मण और न ही शूद्र। मैं न ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय हूँ, न वैश्य हूँ और न शूद्र। ये सभी धर्म के आडंबर मात्र हैं। मैं एक सामान्य जन हूँ।"

जब कोई व्यक्ति संघ में सम्मिलित होता तो उससे उसके जाति-धर्म के बारे में कुछ भी नहीं पूछा जाता था। उससे केवल तीन बार निम्न उच्चारण कराया जाता था-

'बुद्धं शरणं गच्छामि।

संघ शरणं गच्छामि।

धर्म शरणं गच्छामि।।'

यह सूत्र उच्चारण करने पर श्रद्धालु को संघ में सम्मिलित कर लिया जाता

था।

कोई टिप्पणी नहीं

Thanks for feedback

Blogger द्वारा संचालित.