पति में प्राण फूकने वाली जयनी की कहानी
पति में प्राण फूकने वाली जयिनी साम्यवाद के स्वर गुरौंजाने वाले मार्क्स में कुछ ऐसे ही प्राण जयिनी ने भरे थे। गरीबी- अमीरी की खाई पाटने, शोषक की विलासिता, शोषित की पीड़ा समाप्त करने के लिए, सम्पन्नता की बेटो ने, अभावों के दामन को ओढा । धनाढ्य पिता की पुत्री उच्च अधिकारी की बहिन के लिए विपन्न मार्क्स के पास क्या रखा था ? वैभव विलास के लिए कुछ न होने पर ऐसा बहुत कुछ था, जिसकी उसे चाह थी । ये थे नये समाज का मानचित्र बनाने वाले प्रयत्न।
इन प्रयत्नों में जुटे मार्क्स की निर्वाह व्यवस्था जुटाने के लिए जयिनी नीलाम के कोट-कपड़े खरीद लाती और उन्हें काटकर नए कपड़े सीती थी- उन्हें बेचती और पतिका खर्च चलाती । इतना ही नहीं मजदूरों का संगठन करने में जुटी उनके लिए कल्याणकारी कार्यों को संचालित करने में निरत हुई। अपमान-तिरस्कार सभी कुछ सहना पड़ा। इसका जिक्र करते हुए उसने एक चिट्ठी लिखा- "मैं इस बात को खूब अच्छी तरह जानती हूँ कि इस प्रकार के भयंकर वज्रपातों को सहन करना कितना कठिन है। पर इसके बाद भी मेरा मस्तिष्क ठीक-ठिकाने है। मुझे अपने कार्य की महानता और उसके लिए अपेक्षित त्याग की शर्त मालूम है।
भाई ने समझाया- अरे क्यों पागल बनी हो, अभी भी लौट आओ क्या बिगड़ा है ? पर दृढ़ता जिसकी नस-नस में हो, अन्दर बैठा इन्सान-इन्सानियत के लिए बेचैन कर रहा हो, उसे चैन कहाँ ? भू-फटेहाल गुजरती जिन्दगी में भी उसे गर्व था, साथ ही उसे यह भी मालूम था कि क्षत-विक्षत मानवता को मरहम लगाने के लिए यह कष्ट कुछ अधिक नहीं है।
अपनी एक सहेली को लिखे गये पत्र उसने कहा था "बहन यह ख्याल मत करना कि इन छोटे-छोटे कष्टों के कारण में हिम्मत हार बैठी हूँ। मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि मैं अकेली तकलीफ में नहीं हूँ। दुनियाँ में लाखों आदमी मुझसे कहीं अधिक कष्ट पा रहे हैं। बस एक बात है, जिससे मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा- वह है, कि मैं और अधिक कुछ क्यों नहीं कर रही ? दुःखमय स्थिति में रह रहे मजदूरों का सारा दुःख अपनी झोली में क्यों नहीं डाल पा रही ?"
ऐसी थी उनकी तड़, इसी के द्वारा तो उन्होंने मार्क्स में प्राण फूके थे। उनके न रहने पर मार्क्स को कहना पड़ा-यदि एंजलिस- विच ने मुझे बन्द न कर दिया होता, तो शायद उसके वियोग में में जीवन समाप्त कर लेता। अब मैं प्रेरणा व प्राण का प्रवाह रद महसूस करता हूँ । सचमुच मेरी संचालिका वही थी।" कार्ल मार्क्स ने यह महसूस किया कि मूर्तिकार की भाँति नारी में, मनुष्य के अन्दर छिपे बैठे मनुष्यत्व को उभारने की अद्भुत शक्ति है । इसका प्रकटीकरण उन्हीं में होता है, जिन्होंने इसे स्वयं में उभारा है, दूसरों की पीड़ा को समझा और उसके निवारण करने की कोशिश की है ।
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