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स्वामी विवेकानन्द जी का संसार को संदेश-swami vivekananda.

स्वामी विवेकानन्द का संसार को सन्देश-swami vivekananda.

                              स्वामी विवेकानन्द       

जो थोड़ा बहुत कार्य मेरे द्वारा हुआ है, वह मेरी किसी अन्तर्निहित शक्ति द्वारा नहीं हुआ, वरन् पाश्चात्य देशों में पर्यटन करते समय, अपनी इस परम पवित्र और प्रिय मातृभूमि से जो उत्साह, जो शुभेच्छा तथा जो आशीर्वाद मुझे मिले हैं, उन्हीं की शक्ति द्वारा सम्भव हो सका है। हाँ, यह ठीक है कि कुछ काम तो अवश्य हुआ है, पर पाश्चात्य देशों में भ्रमण करने से विशेष लाभ मेरा ही हुआ है । इसका कारण यह है कि पहले में जिन बातों को शायद हृदय के आवेग से सत्य मान लेता था, अब उन्हीं को में प्रमाणसिद्ध विश्वास तथा प्रत्यक्ष और शक्तिसम्पन्न सत्य के रूप में देख रहा हूँ। पहले में भी अन्य हिन्दुओं की तरह विश्वास करता था कि भारत पुण्यभूमि है— कर्मभूमि है, जैसा कि माननीय सभापति महोदय ने अभी अभी तुमसे कहा भी है । पर आज में इस सभा के सामने खड़े होकर दृढ़ विश्वास के साथ कहता हूँ कि यह सत्य ही है। यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है। जिसे हम पुण्यभूमि कह सकते हैं, यदि ऐसा कोई स्थान है जहाँ पृथ्वी के सब जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना पड़ता है, यदि ऐसा कोई स्थान है जहाँ भगवान् की ओर उन्मुख होने के प्रयत्न में संलग्न रहनेवाले जीवमात्र को अन्ततः आना होगा, यदि ऐसा कोई देश है जहाँ मानवजाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है और यदि ऐसा कोई देश है जहाँ आध्यात्मिकता तथा सर्वाधिक आत्मान्वेषण का विकास हुआ है, तो वह भूमि भारत ही है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही यहाँ पर भिन्न भिन्न धर्मों के संस्थापकों ने अवतार लेकर सारे संसार को सत्य की आध्यात्मिक सनातन और पवित्र धारा से बारम्बार प्लावित किया है। यहीं से उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चारों ओर दार्शनिक ज्ञान की प्रबल धाराएँ प्रवाहित हुई हैं, और यहीं से वह धारा बहेगी, जो आज- कल की पार्थिव सभ्यता को आध्यात्मिक जीवन प्रदान करेगी । विदेशों के लाखों स्त्री-पुरुषों के हृदय में जड़वाद की जो अग्नि धधक रही है, उसे बुझाने के लिए जिस जीवनदायी सलिल की आवश्यकता है, वह यहीं विद्यमान है। मित्रो, विश्वास रखो, यही होने जा रहा है । मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ। तुम लोगों में जिन्होंने संसार की विभिन्न जातियों के इतिहास का भलीभाँति अध्ययन किया है, इस सत्य से अच्छी तरह परिचित होंगे संसार हमारे देश का अत्यन्त ऋणी है। यदि भिन्न भिन्न देशों की पारस्परिक तुलना की जाए तो मालूम होगा कि सारा संसार सहिष्णु एवं निरीह भारत का जितना ऋणी है, उतना और किसी देश का नहीं 'निरीह हिन्दू'--ये शब्द कभी कभी तिरस्कार के रूप में प्रयुक्त होते हैं, पर यदि किसी तिरस्कार में अद्भुत सत्य का कुछ अंश निहित रहता है तो वह इन्हीं शब्दों में है। हिन्दू सदा से जगत्पिता की प्रिय सन्तान रहे हैं। यह ठीक है कि संसार के अन्यान्य स्थानों में सभ्यता का विकास हुआ है, प्राचीन और वर्तमान काल में कितनी ही शक्तिशाली तथा महान् जातियों ने उच्च भावों को जन्म दिया है, पुराने समय में और आजकल भी बहुतसे अनोखे तत्त्व एक जाति से दूसरी जाति में पहुँचे हैं, और यह भी ठीक है कि किसी किसी राष्ट्र की गतिशील जीवनतरंगों ने महान् शक्तिशाली सत्य के बीजों को चारों ओर बिखेरा है । परन्तु भाइयो ! तुम यह भी देख पाओगे कि ऐसे सत्य का प्रचार हुआ है— रणभेरी के निर्घोष तथा रणसज्जा से सज्जित सेनासमूह की सहायता से । बिना रक्त प्रवाह में सिक्त हुए, बिना लाखों स्त्री-पुरुषों के खून की नदी बहाये, कोई भी नया भाव आगे नहीं बढ़ा। प्रत्येक ओजस्वी भाव के प्रचार के साथ ही साथ असंख्य लोगों का हाहाकार, अनाथों और असहायों का करुण क्रन्दन और विधवाओं का अजस्र अश्रुपात होते देखा गया है।

प्रधानतः इसी उपाय द्वारा अन्यान्य देशों ने संसार को शिक्षा दी है, परन्तु इस उपाय का अवलम्बन किये बिना ही भारत हजारों वर्षों से शान्तिपूर्वक जीवित रहा है। जब यूनान का अस्तित्व नहीं था, रोम भविष्य के अन्धकार-गर्भ में छिपा हुआ था, जब आधुनिक यूरोपियनों के पुरखे घने जंगलों के अन्दर छिपे रहते थे और अपने शरीर को नीले रंग से रंगा करते थे, तब भी भारत क्रियाशील था उससे भी पहले, जिस समय का इतिहास में कोई लेखा नहीं है, जिस सुदूर धुंधले अतीत की ओर झाँकने का साहस परम्परा को भी नहीं होता, उस काल से लेकर अब तक न जाने कितने ही भाव एक के बाद एक भारत से प्रसृत हुए हैं, पर उनका प्रत्येक शब्द आगे शान्ति तथा पीछे आशीर्वाद के साथ कहा गया है संसार के सभी देशों में केवल एक हमारे ही युवकों के प्रति देश ने लड़ाई-झगड़ा करके किसी अन्य देश को पराजित नहीं किया है, इसका शुभ आशीर्वाद हमारे साथ है और इसी से अब तक जीवित हैं।

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