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कौन थी भामती, कैसे दुनिया में फैली इसकी प्रसिद्धि, भामती की कहानी - story of bhamati in hindi

30 वर्षों तक कठिन मेहनत करके जिस अप्रतिम ग्रंथ की रचना की थी, उस पर लिख दिया- भामती, कौन थी भामती, कैसे दुनिया में फैली इसकी प्रसिद्धि, भामती की कहानी - story of bhamati in hindi.
 

श्रद्धा-सुमन भामती को समर्पित मार्ग दिखाने वाले दीप का प्राण है-तेल । दूसरे के बिना पहला निर्जीव है । यों सभी प्रशंसा दीप की करते हैं, पर विवेकी जानते हैं कि बिखरता उजाला और कुछ नहीं, तेल के तिल-तिल जलने का परिणाम है; निज के अस्तित्व को खपाते जाने वाली तपश्चर्या है । तप का ऐसा ही मूर्तिमान स्वरूप थी “भामती” । एक दिन जब वह पिता के साथ जा रही थी, देखा कि बस्ती से थोड़ा हटकर बने कुटीर में एक कृशकाय सविला युवक, लेखन में निरत है। वैभव के नाम पर जिसके पास कुछ फटे-पुराने वस्त्र, पुस्तकें, लेखनी, कागज, चटाई से अधिक कुछ नहीं ।
जिज्ञासा बढ़ी, कौन है, क्यों जुटा रहता है ? पिता से पूछने का आग्रह किया। पूछने पर पता चला पंचानन वाचस्पति मिश्र नाम का यह युवक, अपने सम-सामयिक चिन्तन को दिशा सुझाने के लिए आकुल है। अनुभव, तर्क, तथ्य, प्रमाणों को सँजोकर यह स्पष्ट करना चाहता है कि सभी समान है-फिर विषमता की विडम्बना क्यों ? आदि गुरु शंकर के एकता-समतावादी स्वरों में समय के अनुरूप नये प्राण फूंकना चाहता है । कार्य की महानता पर उसका हृदय भर आया । पर यह जीर्ण काया, शीर्ण होते प्राण, हो सकेगा यह कार्य पूरा ? मन में सन्देह उभरा। कैसे निर्वाह करता है ? पूछने पर पता चला दो-एक दिन में एक आध बार अंकुरित अनाज, भुने कंद खाकर ज्यों-त्यों पेट भर लेता है।

स्थिति साफ हो चुकी थी। भामती के संवेदनशील मन ने समाधान सोच लिया- चुक रहे प्राणों में अपने प्राणों का अर्पण । चाहे जो कष्ट सहना पड़े, पर विचारों को नव जीवन देने वाला यह अधूरा न रहेगा। इसकी सामाजिक स्वीकृति थी - विवाह । वर तलाश रहे पिता को अपने निश्चय की सूचना दी। सुनते ही वह अवाक् रह गए । “अरे यह क्या ! उस सनकी से विवाह ! जिसे स्वयं अपना ध्यान नहीं, तुम्हारा क्या ध्यान रखेगा ? स्वयं भूखा रहने वाला- तुम्हें क्या खिलाएगा ? ऐसे रूप-रंग-विहीन, दुर्बल- काय व्यक्ति से सम्बन्ध ? नहीं नहीं यह न हो सकेगा ।"

"पर यही होगा-पिताजी ! विवाह भोगों के लिए नहीं, आदर्शों के लिए है ब्राह्मण परम्परा जिन्दा रहे, समाज को राह सुझाने वाला मनीषी समाप्त न हो इस हेतु यही निर्णय ठीक है मेरा कार्य प्रतीक रूप में संसार के सामने उभरेगा-दूसरों को प्रेरणा मिलेगी।" बेटी के साहस, मनीषा की रक्षा के लिए उटती उमंग के सामने निस्तर हो कर पिता को आज्ञा देनी पड़ी ।

विवाह होते ही- निर्वाह जुटाने, आवश्यक साधन एकत्रित
करने की जिम्मेदारी उसने उठा ली। सारे सुयोग जुटने से ज्ञान- साधना में निरत वाचस्पति के प्राणों का नवीनीकरण होने लगा । आखिर प्रखर प्राण जो मिले थे। रस्सी बटते, यज्ञोपवीत बनाते, चक्की पीसते वर्षों बीत गए। बचे हुए समय में ग्रामीण बालकों में शिक्षा और सुसंस्कारिता की पौध लगाती। आदशों की प्रखर लौ में माँगों और चाहत के पतंगे जल-भुन चुके थे। कभी की तरुणी अब वृद्धा थी-एक दिन बुझे दीपक को जलाते


हुए देख- पंचानन ने पूछा- 'आप ?' ए उत्तर मिला- आदर्शों के प्रतिपादन में निरत मनीषी की सहायिका । विवरण प्रकट हुआ, अतीत की घटनाएं सामने आ गयीं। पंचानन मिश्र का सिर श्रद्धासिक्त हो नत था । उन्हें स्वीकारने पर विवश होना पड़ा। देवी! तुम्हारा कृतित्व मेरी अपेक्षा लाखों गुना श्रेष्ठ है। तुम्हारे प्राण संचार के अभाव में पंचानन न जाने कब का समाप्त हो गया होता। आदर्शों के लिए ऐसा मूक समर्पण ? बाल संस्कारशाला और निर्वाह-व्यवस्था के दोहरे कार्य । भावों से अभिभूत हुए वाचस्पति ने कहा- देवी ! अपने जीवन के इस सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का नाम - तुम्हारे ही नाम पर 'भामती' रखता हूँ।"

आदर्शो के प्रति समर्पित होने वाले नाम की चाहत नहीं रखते । कार्य पूरा हुआ यही सब कुछ है। श्रद्धासिक्त स्वर में पंचानन ने कहा- "तुम तो नाम से बहुत ऊपर हो, पर तुम्हारे नाम से प्रेरणा लेकर अनेकों नारियाँ अपने सृजन कौशल को उभार कर भामती बन सकेंगी।" अपनी सृजन शक्ति के बल पर एक भामती हजारों पंचानन वाचस्पति गढ़ सकती है। यदि ध्यान दिया जा सके, तो शरीर से न रहने पर भी भामती अभी भी प्रखर- • प्रेरणा के रूप में अन्तराल में वैसा ही कुछ करने के लिए बेचैनी पैदा करती हुई दिखाई पड़ सकती है।

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