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सफलता के सूत्र हम सभी को महाभारत से सीखने चाहिए -Shrimad-Bhagwat-Geeta.

सफलता के सूत्र हम सभी को महाभारत से सीखने चाहिए, श्रीमद भगवत गीता। Shrimad-Bhagwat-Geeta.


यह सवाल उठता है की हमारे पौराणिक इतिहास को जानना क्यों जरूरी है। इसे जानना जरूरी है, ताकि जो अतीत में जो गलतियां हुई है, हम उन्हें दुराए नही और जो कुछ अच्छा हुआ है, उनसे सीख कर हम भी इस दुनिया को बेहतर बनाने में योगदान दे सके। 
आज मैं आपको बताऊंगा सफलता के ये सूत्र जो हम सभी को महाभारत से सीखने चाहिए।


1- क्वालिटी चुने, क्वांटीटी नही >

श्रीकृष्ण कोरव और पांडवों में किसी का भी विनाश नही चाहते थे। वे आखिर तक युद्ध को टालने के प्रयास करते रहे, लेकिन युद्ध अनिवार्य हो गया था। कृष्ण जी ने दुर्योधन और अर्जुन दोनो को एक विकल्प दिया - एक तरफ मेरी अक्षोहिणी नारायणी सेना है तो दूसरी तरफ में अकेला। जिसे जो चाहिए, चुन लीजिए। एक तरफ क्वांटिटी थी दूसरी ओर अकेले कृष्ण, वह भी निहत्थे,  हालाकि  क्वालिटी से भरपूर । लेकिन युद्ध का परिणाम क्या हुआ, सब जानते है। तो गिनती की दौड़ में न पड़े, गुणवता की खोज करे, विजय निश्चित है।

2- समय के साथ बदल जाइए >

चौरस में हारने के बाद पंडोवो को 12 साल के वनवास और एक साल का अज्ञातवास पर जाना पड़ा। अज्ञातवास की परिस्थिति बेहद कठीन थी। उन्हें हर हाल में छुपना ही था और छुपने वाले भी कोन, वे जो लाखो में भी पहचान लिए जाए, पांडव पुत्र। इनका अज्ञात रहकर छुपेराहना एक असंभव सी चुनौती थी। इस चुनौती से घबराकर इसपर आंसू बहाने के बजाए पांडवों ने तय किया की समय बदला है, तो हम भी बदल जाए। वे छिपने के लिए राजा विराट के यहां जा पहुंचे। वीर पुरुष अर्जुन बृहन्नला का रूप धरकर राजा की बेटी उतरा के नृत्य सिखाने लगे। युद्धिष्टर जो खुद को चौरस में हार गए थे, वे राजा विराट को चौरस सिखाने में लगे।इसी बहाने उनको महल में रहने की अनुमति मिल गई। भीम जिनका भोजन सैकड़ों रसोइये मिलाकर बनाते थे, वे खुद रसोइया बन गए।और द्रोपति जिनके आगे पीछे दासियों की सेना चलती थी, वह स्वयं दासी बनकर रानी सुदेष्ण सेवा करने लगी। उन्होंने बस यही सोचा जब आधी गुजर जायेगी, फिर जौहर दिखाएंगे। वक्त अच्छा है तो मखमल पर कदम रखते है, वरना अंगारों पर चलने का भी दम रखते है।


3- अपनी जानकारी अपडेट करे > 

अभिमन्यु अर्जुन का पुत्र था जो महापराक्रमी और जन्मजात योद्धा था। कहते है उसने मां के गर्भ में ही चक्रव्यूह को तोड़ने की विधा सिख ली थी।लेकिन क्या हुई की उसने अपनी विधा को अपडेट नहीं किया।उसने जितना सीखा, उतने पर ही रुक गए। शिक्षा पूरी नही की परिणाम यह हुआ कि वह चक्रव्युह तोड़कर उसमे प्रवेश तो कर गया, वापस जिवत नही लोट पाया, क्योंकि उसने वापस लोटने का पाठ कभी पढ़ा ही नही था। इस तरह संभावनाओं से भरा एक तेजस्वी मृत्यु के अंधकार में खो गया, सिर्फ इस कारण की उसकी जानकारी अधूरी रह गई।

4- महत्वकांक्षा और लालच के बीच अंतर >

आप बहुत बड़े आदमी बनना चाहते है, शोहरत पाना चाहते है तो यह महत्वकांक्षा है। लेकिन यह आप किसी का हक मारकर करना चाहते है तो यह लालच है। महत्वकांक्षा जितनी अच्छी चीज है, लालच उतनी ही खराब। दुर्योधन चक्रवाती सम्राट बनना चाहता था। उसकी महत्वकांक्षा थी की सिर्फ अस्तिनापुर ही नही, दसों दिशाओं में उसका राज हो। लेकिन उसे लालच का अभिसाप डस गया। उसने अपने ही भाईयो का हक मरना चाहा। पांडवों को पांच गांव देने से मना कर दिया। फिर क्या हुआ? हस्तिनापुर का वह राजा जो जमीन पर पैर नही रखता था, कुरुक्षेत्र की धूल में लोटते हुए मारा गया।

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