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मन पर विजय कैसे प्राप्त करे | Sant Kabir Suvichar | Thoughts hindi

साखी> मन सायर मनसा लहरी, बूढ़े बहुत अचेत।
कहहि कबीर ते बाचि है, जाके हदय विवेक ।।१०७।।

भावार्थ> मन समुन्द हैं और उससे उत्पन्न नाना
इच्छाएं एवं कल्पनाएं लहरे है । इनमे बहुत से
असावधान लोग डूब गय है ।
सदगुरु कहते है की इनमे वही बचेगा जिसके
हदय में सत्य तथा असत्य को परखने की
शक्ति होगी ।।

व्याख्या> आप कभी समुन्द्र के तट पर गये
हो तो देखा होगा की समुन्द्र कितना
विशाल होता है। हम समुन्द्र की तरफ
मुख कर उसके तट पर खड़े होते है,
तब हमारी दृष्टि में केवल समुन्द्र का पानी होता है।
थोड़ा और दूर देखते है तो आकाश और
समुन्द्र आपस में मिलते हुए नजर आते है।

समुन्द्र की विशालता मनोहर भी लगती है
और भयावह भी।
समुन्द्र में समय समय पर बड़े जोरों से
ज्वार आते है। समुन्द्र के पानी का ऊपर उठना
ज्वार कहलाता है, और गिर जाना भाटा कहलाता है।
जब ज्वार भाटे नही रहते, तब भी समुन्द्र में
हर समय हहां -हहां की आवाजे करते हुए
ऊंची ऊंची लहरे आती रहती है।
समुन्द्र का पानी कभी शांत नहीं रहता।
उसमे हर समय लहर -पर -लहर उठती रहती है।
सदगुरु कहते है कि मनुष्य का मन भी एक
 विशाल समुन्द्र है जिसमे इच्छाओं, संकल्पो,
कल्पनाओं एवं स्मरणो की लहरे निरंतर उठती रहती है।
जैसे बीच बीच में ज्वार भाटे आते है, वैसे ही मनुष्य के
मन में काम क्रोध,लोभ, मोह, हर्ष, शोक, भय के
बड़े बड़े ज्वार भाटे आते है, परंतु सामान्य विष्यासक्ति
एवं राग -देश तथा सुख -दुख के द्वंदात्मक स्मरण
प्राय सब समय उठते रहते है।
जैसे समुन्द्र की लहरे उठती है, वैसे ही मन में
संकल्प विकल्प की लहरे उठती है।
"मन सायर मनसा लहरी" कहने का तरीका
कितना चोटदार है! 'मनसा' का अर्थ है
जो मन से पैदा हो।
इच्छा, वासना तथा कल्पनाओं की लहरे मन से
उठती है। सदगुरु कहते है 
"बूढ़े बहुत अचेत" अचेत असावधान एवं
बेहवास लोग ही मन के सागर मे
डूबते है। परंतु जो साधक है, वह भी जिस समय
अचेत हो जायेगा, सावधानी छोड़ देगा, उस समय
ही मन की लहरों में डूबने लगेगा। इन मन की
तरंगों से वही बचता है जिसके हदय में विवेक है।
विवेक परख शक्ति का नाम है। सत्य -असत्य,
सार -असार, जड़ -चेतन तथा स्व और
पर की जिसे परख है उसकी दिव्यदृष्टि होती है।
विवेक बड़ा
वजनदार है। बुद्धि भ्रम में पड़ सकती है, किंतु
विवेक भ्रम में नही पड़ता।
सदगुरु ने समुन्द्र की लहरों का उदाहरण देकर
मन तथा मन के विकारों का समझाया है।
समुन्द्र एवं उसकी लहरों में जड़ प्रकृति कारण है
जो स्वाभाविक है। अर्थात जब तक समुन्द्र है
तब तक उसमे लहरे उठती रहेंगी वे बंद नहीं हो
सकती। परंतु मनुष्य के मन की लहरों का कारण
उसकी असावधानी तथा अविवेक है।
वह अपने अज्ञान से मन में लहर उठाता है और
ज्ञान होने पर मन को शांत कर देता है।
मन को शांत करने के लिए, मनुष्य को
एकांत शांत प्रदेश में स्थिर आसन से बैठना चाहिए।
फिर विवेक -वेराग्यपूर्वक मन की तरंगों को छोड़कर
शांत होना चाहिए। विवेक साधना से जब अंत:कारण
में वैराग्य का अधिक प्रकाश हो जाए, तब स्मरणों
का केवल दृष्टा बने रहना चाहिए। अर्थात दृढ़तापूर्वक
यही ध्यान रखे की सब स्मरण शांत हो जाये।
जब कोई स्मरण उठे तो उसका तुरंत दृष्टा बन जाये,
उसमे मिले नही। फिर वह स्मरण अपने आप लुप्त
हो जायेगा।
उपर्युक्त प्रकार से निरंतर अभ्यास करते -करते
कुछ दिनों में सरलता हो जायेगी, और फिर स्मरण
शांत होकर निश्चलता हो जायेगी। इस अवस्था में
दृष्टापन भी नहीं रहेगा। क्योंकि स्मरण सम्मुख
रहने पर ही जीव दृष्टा है, अन्यथा चेतन मात्र एवं
ज्ञान मात्र है। परंतु ध्यान यह होना चाहिए कि
इस समय में निंद्रा -तंद्रा या मूढ़ता न आने पाये।
इसी को स्थिर अवस्था कहते है, जो साधना का
फल एवं सर्वोच्च पद है।
इसके अनंतर उठते -बैठते, चलते -फिरते निरंतर
विवेक अवस्था में जाग्रत रहना यह साधना का
अंतिम फल है। क्योंकि यदि कोई एक काल में
तो समाधिस्थल हो जाये, परंतु अन्य कल में
मन माया से सावधान न रहे या अधिक प्रपंचकार
रहे, तो यह साधना का कोई नही है। जो हर क्षण
मन माया से सावधान रहता है वही समाधिस्थ एवं
विवेकवान पुरोष है।

इस कार्य के लिए व्यवहार प्रपंच की कमी, ब्रह्मचर्य
का अखण्ड पालन, वैराग्य भावना, सदाचार,
मन:कल्पित भोगों का सर्वथा त्याग, निर्वाह में
सादगी और संतोष, वेराग्यवानो का सत्संग, वैराग्य
बोधपूर्ण सद्ग्रंथो का अध्यन तथा एकांत सेवन
की महान आवश्यकता है।

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