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खुशी का यह सिद्धांत रोजमर्रा के जीवन में बहुत कारगर है।



सफलता से खुशी का अस्थायी एहसास हो सकता है,
या कोई दुखद घटना हमे निराश कर सकती है, लेकिन
देर सवेरे हमारी खुशी अपने न्यूनतम स्तर पर लोट आती
है। मनोवैज्ञानिक इस प्रक्रिया को अनुकूल कहते है।
यह सिद्धांत हमारे रोजमर्रा के जीवन में काम आता है।
वेतन वृद्धि, नई गाड़ी अपने साथियों द्वारा की गई प्रशंसा
हमे कुछ देर के लिए खुशी दे सकती है, लेकिन हम
जल्द ही खुशी के अपने सामान्य स्तर पर लोट आते है।
इसी तरह किसी मित्र से हुई नोक झोंक, मरम्मत के
लिए गई हुई गाड़ी या छोटी चोट हमे दुखी कर सकती है,
लेकिन कुछ ही दिन में सामान्य खुशी वापस आ जाती है।
अपनी बाहरी परिस्थितियों के बावजूद अगर हम खुशी
के अपने आधारभूत स्तर पर लोट आते है, तो वह
क्या चीज है जो उस आधार को निर्धारित करती है।
इससे भी जरूरी यह है की क्या इसे बदलकर पहले से
जायदा उच्च स्तर पर लाया जा सकता है?
मनोवैज्ञानिकों का मानना है की प्रकृति ने हमें खुशी का
चाहे कोई भी स्टार निर्धारित करके दिया हो, हम
मस्तिष्क के साथ कुछ ऐसे कदम उठा सकते है जिनसे
हमारी खुशी के भाव में वृद्धि हो सकती है। ऐसा
इसलिए क्योंकि हर पल मिलने वाली खुशी हमारे
दृष्टिकोण पर निर्भर है। किसी भी समय पर सुख या
दुख का हमारी स्थिति से कोई संबध नही होता, बल्कि
यह इस पर निर्भर है की हम अपनी स्थिति को किस
तरह देखते है।

दलाई लामा तिब्बती गुरु
पुस्तक -आनंद का सरल मार्ग

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