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महात्मा गौतम बुद्ध का जीवन परिचय | Biography of Mahatma Gautam Buddha

Mahatma gaotam budhha ka jivan pariachay.

Biography of Mahatma Gautam Buddha.

महात्मा गौतम बुद्ध विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक बौद्ध धर्म के संस्थापक है। भगवान गौतम बुद्ध ने मानव जाति को शांति, निष्पक्ष तरीके से जीने और परम सत्य का ज्ञान कराया। उनके उपदेश, संदेश और विचार मनुष्यों को नैतिक मूल्‍यों, आत्मज्ञान और संतोष पर आधारित जीवन जीने के लिए प्रेरित करते है। भगवान बुद्ध ने पूरी दुनिया को करुणा और सहिष्णुता के मार्ग के लिए प्रेरित किया। उन्होंने जीवन की सत्यता पर विचार किया और मनुष्य को सत्य के लिए प्रेरित किया। आत्मज्ञान को महत्वपूर्ण बताते हुए जीव को बहुबंधनों से मुक्त भी करवाया।
जीवन परिचय > 

महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में हुआ था, जो नेपाल में है। लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया। गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। क्षत्रिय राजा शुद्धोधन उनके पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार सिद्धार्थ की माता का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी)ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा। शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।

बचपन अवस्था >
सिद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देते और जीती हुई बाजी हार जाते। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उनसे नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता। 

विवाह >
भविष्यवाणी में जब राजा को बताया था कि सिद्धार्थ आने वाले समय में सन्यासी हो जायेंगे तो उनके पिता ने इससे बचने के लिए बहुत से विद्वानों से पूछा तो सभी नही भविष्यवाणी को सत्य ठहराया लेकिन सभी ने अपने अपने विचार राजा को बताए की राजन सिद्धार्थ को वह हर सुख दो जिससे की इनका मन बस सुख से बाहर ही न जाए और कुछ विचार मन में ना आए तो राजा शुद्धोधन ने

सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा के साथ विवाह करवा दिया।  पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ।
सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। 

संन्यास >
वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर अपने सारथि के साथ निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। जब सिद्धार्थ ये देखा और सारथी से पूछा की इनको क्या हो गया तो सारथी ने राजकुमार ये वृद्ध है तो सिद्धार्थ ने पूछा की क्या एक दिन मैं भी वृद्ध हो जाऊंगा, सारथी हस्ता हुआ बोला हा राजकुमार वृद्ध अवस्था का तो हम सबको सामना करना पड़ेगा।
दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तो इस बार भी सारथी से पूछा की इनको क्या हो गया तो सारथी ने जवाब दिया की ये बीमार है और इस बीमारी में जयदातर लोग आ ही जाते है।
तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इस बार सिद्धार्थ ने फिर पूछा की ये क्या हो गया ये सब ऐसे कैसे कर रहे है। सारथी ने कहा राजकुमार ये सब जो कंधे पर लेके जा रहे है उसकी मृत्यु हो गई इस वजह से ये सब ऐसे कर रहे है। सिद्धार्थ ने कहा की क्या एक दिन हमारी भी मृत्यु हो जायेगी? तो सारथी ने कहा राजकुमार मृत्यु तो जीवन का सत्य है ये तो सबकी आनी है। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी। और इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को ज्ञान करवाया। सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ चल पड़े। 
वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।
सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।

शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग >
एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ ये बात सिद्धार्थ को विचलित कर गई। और वह इस बात पर सोचने लग गए।

ज्ञान की प्राप्ति >

वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ निरंजना नदी में स्नान के लिए गए।जब नदी में स्नान कर रहे थे तो नदी का बहाव तेज होने लग गया तो सिद्धार्थ को नदी से निकलने में परेशानी होने लग गई।

क्योंकि उन्होंने अन्न को त्याग रखा था शरीर में बल न होने के कारण नदी से निकलना मुश्किल हो रहा था तब सिद्धार्थ को स्त्रियों द्वारा गाया हुआ गीत याद आया,
वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’
फिर सिद्धार्थ कैसे न कैसे करके नदी से बाहर आए।
ये सब बीत जाने से सिद्धार्थ को बोध हो गया जिसको मैं बाहर देख रहा हु वह तो मेरे अंदर ही है, वह ना तो तपस्या में, न उपवास में , न मंदिर में, न तीर्थ में। ये बोध होने पर सिद्धार्थ  निरंजना नदी के तट पर जहा कठोर तपस्या कर रहे थे वहा बैठे बैठे विचार कर रहे थे।

खीर भेंट >

समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। वह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष से मन्नत पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहे थे। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं।
सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहने लगी की हे वृक्षदेवता जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई वैसे ही हर प्राणी की मनोकामना पूरी हो और वह स्त्री चली गई। बाद में सिद्धार्थ वह खीर खाकर उपवास तोड़ दिया।
वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की ठीक नही। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्य करनी पड़ती है। ऐसे सिद्धार्थ को सच्चा बोध हुआ और सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।

उन्होंने लोगो को मार्ग दर्शन के लिए बहुत से प्रेरक विचार कहे है। जो हम आपको आने वाले ब्लॉग पोस्ट में बताएंगे।

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