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धर्म भक्ति के नाम पर पशु मत बनो ।










साखी > करक करेजे गड़ी रही, बचन वृक्ष की फांस। 
             निकसाय नीकसे नही, रही सो काहू गॉस ।।

भावार्थ > वाणिरूपी पेड़ के कांटे मनुष्य के कलेजे में चुभ 
गये है। वे रुक रुककर पीड़ा करते है। वे किसी के निकालने 
पर भी नही निकलते। वे भावुको के दिलो में चुभकर रुके 
हुए है।

बांस आदि पेड़ो के नुकले रेशे जब मनुष्य के किसी अंग में 
गड़कर अंदर ही अंदर टूट जाते है तब उनका निकलना 
कठीन हो जाता है। वे अंदर रहकर घाव बनाते है तथा उनसे 
होने वाली पीड़ा को करक कहते है। सदगुर कहते है की 
वचनों के भी पेड़ होते है जिनके कंटीले रेशे मनुष्य के ह्रदय 
में चुब्ब गए है और ऐसे चुभे है की टूटकर अंदर ही रह गए 
है। वे अंदर ही घाव बना दिए है। उनका निकलना सरल नहीं 
है। सदगुरु कहते है "रही सो काहू गॉस" काहू में भावूको 
एव विवेक रहितो के लिए व्यंजना है। जो केवल भावुक है 
तथा विवेक को अलग रखकर बाते करता है उसी के मन में 
जैसी तैसी वाणियो को काटे धसे रहते है और निकलते नही 
है। लेकिन विवेकवान उन्हें निकाल फेंकता है। 

यहां वचनों के कांटे के अर्थ आध्यात्मिक एवं व्याहारिक दोनो 
में लगते है। प्रसंगानुसार मुख्य अर्थ आध्यात्मिक वचनों में 
ही है। भूत प्रेत देवी, देवतादी समस्त चमत्कारिक अवधारणा 
के विषय में मनुष्य ने धर्मग्रंथों से जितने पढ़ तथा सुन रखे 
है वे उनके हृदय में पूर्णतया चुभ गए है। मनुष्य धर्म के नाम 
पर तथ्यपूर्ण वचनों के साथ साथ सैकड़ों बे सिर -पैर की 
बातो को भी परम प्रमाण मानते रहते है। 
सबसे ज्यादा व्यामोह प्रभु वचन एवं आप्त वचनों का है। 
आदमी धर्म और भक्ति के नाम पर इतना अंधा बन गया है 
की इनके नाम पर धर्मग्रंथों में जो कुछ कहा गया है, उन पर 
विचार करना ही नहीं चाहता। मालूम होता है की धर्म भक्ति 
का सचाई से कोई रिश्ता ही नही है। चमत्कार अंधविश्वास 
एवं पोगापंथी बातो पर कसौट लगाई जाये, उन्हे परखने की 
बात की जाए तो लोग पाप होय गौ घात समाना कहकर 
कानो में उंगली लगा लेते है और भाग खड़े होते है या लड़ने 
लगते है। तब ये बात चरितार्थ होती
"निकसाये निकसे नही, रही सो काहू गॉस"। 

दूसरे व्याहारिक क्षेत्र के वचन है। किसी ने किसी को कुछ 
कह दिया है और उसके मन में वह बात चुभ गयी है तो 
निकालने पर भी नही निकलती है। यह सब अविवेक का फल 
है। जिसके मन में विवेक है, परख है, उसके ऊपर किसी का 
गांस फांस नही लगती और न वह धर्म भक्ति के नाम पर 
अपनी बुद्धि को बेच देता है और न किसी के वचन बाण से 
व्यथित होता है। किसी के भला बुरा कहने से हम क्यों पीड़ित 
हो, किसी की बातो से यदि हम क्षुब्द होते रहे तो इसका अर्थ 
है की हम पशु है और हमें कोई जिधर चाहे हांकता रहे और 
हम दूसरो द्वारा हांके जाते रहे। हम पशु है की मनुष्य, इसकी 
परख केवल मानव शरीर से नहीं होती है, किंतु इसके लिए 
विवेक कसौट है। यदि हम हर बात पर विवेककर स्वत: दृष्टि 
सार तथा अ सार का निर्णय करते है तो हम मनुष्य है और 
यदि हम केवल दूसरो द्वारा हांके जाते है तो पशु है।

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