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श्रीकृष्ण के इस वाक्य को समझकर अपनी योग्यता का स्वयं सदुपयोग करे।

तंबू को कनात बनने में क्या देर लगती है। अब थोड़ा यह भी 
समझ ले की इन दोनो में फर्क क्या है।
एक बड़ा अंतर यह है की तंबू अपने आप में एक छत है, 
कनात बिना छत की होती है। छत यानी एक सुरक्षा, एक 
सरक्षण। हम जब जीवन में सफल होते है तो वह सफलता 
हमारे लिए एक छत बन जाती है। और फिर हम भूल जाते है,
अंहकार में डूब जाते है, बस यही हम सबसे बड़ी भूल करते है 
क्योंकि मनुष्य में जब अहंकार आ जाता है तो उसका पतन 
वही से शुरू हो जाता है। और जो छत बनी है वह उड़ने लग 
जाती है। इसलिए जब सफल हो, पास कोई जिम्मेदारी या 
कोई सता हो तो ध्यान रखिएगा, सता को चलाने के लिए 
अपनी मौलिक योग्यता सदैव बनी रहनी चाहिए। सारे काम 
दूसरो के सहारे न छोड़े। सता चाहे परिवार की हो या व्यापार 
जगत की, या राजकाज की हो, बस न तो असावधानी रखे 
की आपको कोई और चला ले, न ही इस बात अहंकार या 
गलतफहमी पाले की मैं खुद ही सबकुछ चला रहा हु। कोई 
और भी शक्ति होती है जो आपकी मदद कर रही होती है।

जब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी उंगली पर उठाया तो 
कई गोप ग्वालो ने भी अपनी अपनी लाठिया लगाते हुए कहा 
था यह पर्वत इसलिए उठा हुआ है की लाठिया हमारी लगी 
है। कृष्ण की तो सिर्फ एक उंगली लगी हुई है। यह उनकी 
गलतफहमी थी। उससे पीछे शक्ति तो कोई और ही थी। 
इसलिए अपनी योग्यता का स्वयं सदुपयोग करे और दूसरे 
उनका न कर जाए, इसे लेकर बहुत सावधान रहे।

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