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सत्यपदेश न मानना अपराध है। Sadguru shree Kabirdas sakhi l


साखी > मानुष ते बड़ पापिया, अक्षर गुरुही न मान।
            बार बार बन कुकुही, गर्भ धरे और ध्यान।।

भावार्थ > हे भुला मानव तू बड़ा पापी है जो गुरु के दिए हुए 
अविनाशी स्वरूप के उपदेश को नहीं मानता और नाशमान 
देहादी में पचता है। जैसे बनमुर्गी बारम्बार गर्भ धारण करके 
अंडे देती है उन्ही के सेने में ध्यान रखती है वैसे तू भी देह, 
गेह, परिवार आदि का अहंकार कर उन्ही में सदैव ध्यान 
रखता है और अविनाशी निर्भय स्थिति से दूर रहता है।

व्याख्या > यह मनुष्य का सबसे बड़ा पाप है वह सच्चे गुरु के 
उपदेश पर ध्यान नहीं देता। गुरु का उपदेश है की मनुष्य का 
अपना आपा अमर है। अक्षर का अर्थ अविनाशी होता है तथा 
उपदेश भी। गुरु के उपदेश, गुरु के बताए हुए अविनाशी तत्व 
बोध का तिरस्कार करना मनुष्य का बहुत बड़ा अपराध है। 
इस पाप का फल होता है की मनुष्य अपने अविनाशी चेतन 
स्वरूप के परिचय से वंचित रह जाता है। उसकी कभी आत्म 
बुद्धि बन ही नहीं पाती, उसकी सदैव देहबुध्दी रहती है। वह 
देह के खान पान, सृंगार एवं इन्द्रिय भोगों में ही सदैव लिन 
रहता है। पेट, भोग और धंधा इससे अधिक उसका कोई और 
उपदेश नही रहता। इसलिए वह संसारस्त्क होता है। 
संसारसत्क आदमी सदैव संसार के विषयों का ध्यान करता 
है, क्योंकि उसका उन्ही में अहभाव रहता है। जो व्यक्ति 
जिसमे अपनापन जोड़ता है वह उसी में ध्यान करता है। 
सदगुरु ने इसके लिए इस साखी की दूसरी पंक्ति में बड़ा 
मार्मिग व्यंग्य किया है
" बार बार बन कुकुही, गर्भ धरे और ध्यान । कुकूही का अर्थ 
ही होता है बनमूर्गी। बनमुर्गी बारम्बार गर्भ धारण करती है 
और अंडे देकर उनको सेती है। अंडे के सेने से उसे अंडे का 
ही ध्यान का ही ध्यान करना पड़ता है। 
संसारी मनुष्यों का  सांसारिक  प्राणी पदार्थों  को अपना
अहंकार करना, मानो उनका गर्भ धारण करना है। यह गर्भ 
वह बारम्बार धारण करता है। मनुष्य सदैव सांसारिक प्राणी 
पदार्थों  के अहंकार में ही डूबा रहता है। इसलिए वह उन्ही 
का सदैव ध्यान भी करता है। संसारी मनुष्य सदैव विषयो 
के चिंतन में डूबा रहता है। उसका मन सदैव विनशने वाले 
विकारी प्राणी पदार्थों का जप करता है। वह सदैव काम,क्रोध 
लोभ, मोह, भय, राग, द्वेष, ईश्या, संताप आदि मानसिक 
विकारों में जलता है।
सता में मुख्य दो तत्व है क्षर तथा  अक्षर क्षर का अर्थ है 
नाशमान। जो चीज सदैव बदलती रहे वही क्षर है। देह, गैह, 
धन, सम्मान और संसार के सारे जड़ पदार्थों की यही दशा 
है। वे सदैव बदलते रहते है। उनका एकरस रहना असंभव 
है, इसलिए उनमें अहंता ममता करने वालो का चित भी 
दुखी रहता है। जो आज है और कल नही, उसमे अहंता 
ममता करना कष्ट कारक होगा ही।
दूसरा तत्व अक्षर तत्व है, अक्षर का अर्थ है अविनाशी, 
एकरस। वह व्यक्ति का अपना आपा है। अपना चेतनस्वरूप 
अपनी आत्मा अविनाशी है। अपने आपा की अनुपस्थिति 
का आभास कभी किसी को नहीं होता है। परंतु मनुष्य इस 
अविनाशी स्वरूपबोध से जीवन भर वंचित रहता है। 
इसलिए उनकी बुद्धि सदैव क्षर वस्तु में लगी रहती है।  वह 
सदैव नशमान विषयो का चिंतन करता रहता है और भय से 
पूर्ण रहता है। मनुष्य बनमुर्गी बना सदेव अण्डे -बच्चे देता 
रहता है और उन्ही के मोह में लिपटा हुआ सदैव पीड़ा पर 
पीड़ा भोगता रहता है। 
सदगुरु अक्षर का बोध देते है। वे बताते है की हे मनुष्य तेरा 
वास्तविक स्वरूप अविनाशी है, तू अक्षर है, अक्षय है, तू 
अपने अक्षय रूप का ज्ञान एवं स्मरण छोड़कर क्षयशील 
नाश्मान चीजों में क्यों रमता है। अतएवं विषयो को त्यागकर 
अपने अविनाशी स्वरूप में स्थित हो।

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